No comments yet

ब्रह्मचर्य का सच्चा अर्थ प्राप्ति

<center>मैं अपने गांव में खेतों में ट्यूवेल के पास बने भुस के बोन्गें में भुस ख़ाली होने से बनी जगह में एक फोल्डिंग कुर्सी डॉल रखी थी और हमारे यहाँ जहाँ आज आश्रम है वहाँ जहाँ गद्धी स्थित है वहाँ भी भुस का बोंगा था वहाँ छीप कर ध्यान करता था ताकि कोई ढूंढ नही पाये तब मैने हनुमान जी की चालीसा पढ़ते हुए उनके सारे शरीर की मालिश करते हुए उनके वस्त्र आभूषण उतारता हुआ उन्हें स्नान कराता और फिर से उन्हें वही पहनाता हुआ ऐसे ही ध्यान में डूबा रहता था समय का पता ही नही चलता और ध्यान में देखता की हनुमान जी जैसे कह रहे हो अरे यहाँ भी हाथ मार का मालिश कर आदि आदि इसी बीच मैने शँकराचार्य जी की शक्तिपूजा बिना सम्पूर्णता नही मिलती ब्रह्मज्ञान नही आता ये विषय लेख पर चिंतन किया और तब देवी के श्लोक के साथ उनको भी इसी तरहां स्नान करने की ध्यान में चेष्टा की अब स्त्री लिंग भेद से काम भाव की उत्पत्ति और ब्रह्मचर्य प्राप्ति के स्थान पर ब्रह्मचर्य खण्डित होने का भय और माता के प्रति काम भाव के पाप बोध आने से मन बहुत ही उद्विग्न होने से ध्यान जमना ही बन्द हो गया बस चरण तक ही सब ठहर जाता मुझे पूरा माह हो गया इस सबसे जूझते हुए कभी गांव में तो कभी शहर में जहाँ भी ध्यान लगता टूट जाता तब मेने विचार किया अरे छोडो अपने हनुमान जी ही सही है यही शक्ति भक्ति दाता है इन्ही की ध्यान ही शक्ति पूजा है इस विचार के चलते संकल्प हुआ कल से देवी आराधना बंद बस ऐसा संकल्प के उदय होते ही मैं ध्यान में जड़त्त्व भाव को प्राप्त हो स्थिर हो गया देख की एक देवत्त्व प्रभा मण्डलायुक्त लालिमायुक्त गौरवर्ण की सहज वस्त्र धारी अपूर्व सुंदर परन्तु किसी भी संसारी में देखि स्त्री से चेहरा नहीं मिलता है वे सामने खड़ी है और बोली की शरीर पर मत रुक इसके परे जा इसमें लीन हो और तब जेसे मेने उन्हें छुआ वे एक दुधियां रंग के सोन्दर्ययुक्त प्रकाश में एक स्त्री की आभा स्वरूप में बदल गयी मैं जेसे उसमे प्रविष्ट हुआ और इसके बाद मुझे भान नही रहा लग रहा था की यही है शक्ति पूजा और दर्शन अलिंग दर्शन का सत्यार्थ साक्षात्कार जो मुझे हुआ।और ये रहस्य समझ आया की जब हम इष्ट में सीधे मंत्र जप और ध्यान करते है तो कभी उनमें प्रवेश नही कर सकते शीघ्र ही मन उचट जायेगा यहाँ भक्ति सूत्र है की पहले इष्ट के शरीर के एक एक अंग की सेवा करते स्पर्श करो यही यथार्थ न्यास ध्यान है जिसे भक्त में अपने शरीर में पँच अनुभूतियाँ होंगी जिसमे प्रथम स्पर्श है स्पर्श की परिपवकक्ता होने पर ही यथार्थ रूप के दर्शन होने प्रारम्भ होते है ना की कोई कल्पित चित्र देखा उसे त्राटक का विषय बना कर ध्यान करने से कभी भी मन स्थिर नही होगा ये स्मरण रखें जब स्पर्श से भक्त में स्वयं की काम वासना का शोधन होता है यही काम भाव ही निरन्तर शोधित होता हुआ प्रेम और अंत में समर्पण बनता आत्मसात को प्राप्त होता है ये जो यहाँ कहा गया है इसमें बड़ा विस्तार और गूढ़ अर्थ है यही सत्यार्थ रासलीला कहलाती है इसी की ठीक ठीक प्राप्ति होने पर ही प्रथम शरीर से श्वेद और रस का निकलना और उसका बोधन और शोधन होता है मनुष्य में जो लिंग भेद करता मूल बीज-वीर्य और रज है यही यहाँ यथार्थ प्रथम चैतन्य और जाग्रत होकर स्खलन से होता हुआ शुद्धाशुद्ध भाव को प्राप्त होकर उर्ध्व बनता है यहीं छिपा और प्रकट है खण्ड से अखण्ड ब्रह्मचर्य सिद्धि का सच्चा रहस्य यही गुरु गम्य है यो ही सभी पुरुष भक्ति में प्रथम प्रकर्ति बने यानि स्वयं के लिंगभेद को त्यागा और स्त्री भी यथार्थ स्त्री बनकर स्वयं के लिंगभेद को त्यागती है ये रहस्य है यही छिपी है स्त्री का कुण्डलिनी जागरण तुम देखोगे रामकृष्ण परमहंस पुरुष से स्त्री बन गए और पुनः स्त्री से पुरुष बने तब स्वयं को प्राप्त हुए यही रास लीला में सभी स्त्री भाव लिए पूर्वजन्म के पुरुष ऋषि है यहाँ केवल आराध्य ही पुरुष होता है ये पुरुष साधना और सिद्धि रहस्य है और जो स्त्री इष्ट साधक है वे भी प्रथम स्त्री बनते है यही है प्रकर्ति साधना और प्रकर्ति को पार करना इसे पार करे बिना कोई सिद्ध नही होगा यही कुण्डलिनी जागरण का सच्चा योग रहस्य है बाकि नही हनुमान भी राम में सेवक भाव लिए उनकी सेविका ही है लिंगभेद का अहं रहते भक्ति का सच्चा स्वरूप प्राप्त नही हो सकता है और ठीक यहीं एक रहस्य और समझ आएगा जो भक्त अभी अनेक देवी देव्ताओं की अपने घर में पूजा करते रहते है उसे व्यभचारी भक्ति कहते है जैसे एक पति होता है या एक पत्नी एक होती है तभी सच्चा प्रेम बनता है और जो अनेक पुरुष या स्त्रियों से प्रेमालाप करता है वो व्यभचारी कहलाता है और ये भक्ति किसी एक इष्ट के प्रेम से प्राप्त होता है और एक इष्ट की प्राप्ति एक गुरु की प्राप्ति से होती है वही बताता है की भक्ति रहस्य क्या है जबतक उपरोक्त भक्ति के सेवा आदि नो रहस्यों को नहीं जानोगे तब तक इष्ट या गुरु सिद्धि प्राप्त नही होगी बल्कि व्यर्थ ही पूजा करते जीवन व्यर्थ गवाओगें यही मेने अपनी साधना दर्शन में महाज्ञान पाया साथ ही बहुत बाद के वर्षों में इन सब भावो पर अधिकार होने पर समझ आया की ये सब दर्शन आदि असल में ये सब पुरुष देव और स्त्री देवी आदि भाव प्रत्येक मनुष्य में व्याप्त उसके सूर्य और चन्द्र नाड़ी यानि स्वयं में जो पुरुष शक्ति(-)और स्त्री शक्ति(+) जिन्हें इंगला पिंगला कहते है उनका साक्षात्कार होता है और जो प्रकाश युक्त अलिंग शरीर का प्रभामण्डलयुक्त दर्शन होता है वो इन दोनों पुरुष और स्त्री लिंग का एकीकरण संयुक्त अवस्था है जिसे सुषम्ना नाड़ी का प्रत्यक्ष दर्शन कहते है यही मन की दो सकारात्मक और नकारात्मक यानि(+,-=0 यानि केवल ऊर्जा शक्ति) का मेल जिसे कुण्डलिनी कहते है यहाँ दो दर्शन होते है प्रथम केवल बिंदु दर्शन जो दोनों(+,-=0)का मेल बिंदु है जिसे ज्योति दर्शन कहते है ठीक यहीं पर जब ये शून्य स्वरूप ज्योति बिंदु अपने स्वरूप का विस्तार करता है तभी नाँद सुनाई आता है तब जो एक विस्फोट होता है वहाँ उस ऊर्जा ईं और फट् के बीच अनेक स्वर चिंचिंन,बासुरी,घोर शून्य का घूमता स्वर आदि सुनाई आते है ऐसे ही इस बिंदु के सर्पाकार विस्तार का कुण्डलिनी जागर्ति क्रम है और यही यथार्थ मन यानि समस्त इच्छाओं के समूह का एक होने का दर्शन है जो केवल ऊर्जा स्वरूप में दीखता है जिसे ये दर्शन होता है वो केवल इस आकार रहित स्वरूप के दर्शन पाने से इसे निराकार ईश्वर का दर्शन कह कर अभिव्यक्त करता है जबकि ये दर्शन और अनुभूति केवल ऊर्जा या शक्ति का दर्शन मात्र है यो जब साधक को अपनी समस्त इच्छाओं के एक ही स्वरूप के एकीकरण की उपलब्धि होती है तो वो इस भौतिक जगत की सभी मायावादी शक्तियों का स्वामी बन जाता है समस्त मन की अनन्त इच्छाओ और उसके स्वरूपो को प्रकट और अधिकार करने में सक्षम हो जाता है ये भी केवल मायाविक दर्शन और शक्ति प्राप्ति सेअधिक कुछ नही है ये आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष नही है ये केवल उर्जात्मक भौतिक संसार ही है इससे आगे आध्यात्मिक संसार है।यहाँ आगे के ज्ञान का सार ये है कि इष्ट या गुरु विशेषकर वो गुरु जो किसी इष्ट का अनुयायी नही है जिसने इस रहस्य को जान आत्मसात किया जिसे गीता में योगी कहते है वही मुक्त है यो कृष्ण को लोग कृष्ण नाम से जानते जबकि कृष्ण ने कहा है मेरे अनेक नाम हर जन्म में हुए है मैं आजन्मा हूँ का अर्थ है मैं केवल योगी हूँ योगयुक्त नही यो इष्ट और यही योगी अर्थ प्रदान करने वाला गुरु किसी से प्रेम नही करता है क्योकि प्रेम करने का अर्थ है अभी प्रेम की प्राप्ति के लेन और देन के भाव में पड़ा है और जब वो केवल प्रेम बन जायेगा तब वो ना दाता है ना लेता है क्योकि वो केवल परिपूर्ण है यही अवस्था अखण्ड और प्रेम कहलाती है यही नाम प्रेमाइश् है यो तुम उस से प्रेम करो किससे प्रेम करो जो प्रेम है तब एक होंगे और तब स्वयं के सम्पूर्णत्त्व को प्राप्त करोगे जो की तुम सदा से हो यानि प्रेम।तभी अखण्ड प्रेम अवस्था की प्राप्ति होगी यही सच्चा आत्मसाक्षात्कार है जो की समाधी या निर्विकल्प समाधि या प्रेम समाधी नही है बल्कि आत्मा की सहज अवस्था है जो थी,जो है,यही प्राप्ति का नाम योग और योगी होना है।यही बनो। यही मैं हूँ सत्य।
?</center>

Post a comment