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क्या आत्मसाक्षात्कार के उपरांत अपशब्द कहने बंद हो जाते है यदि नही तो उस योगी को आत्मसाक्षात्कार नही माने

साईं बाबा ने होली पर अपने भक्तों को अपने साथ होली खेलने व् रंग लगाने को मना कर दिया था तब भी होली वाले दिन उनके भक्तों ने बहुत अनुविन्य की तब उन्होंने कहा ठीक है मेरे चरणों में रंग लगाना बस फिर क्या था चरणों में रंग लगते लगते उनके चहरे तक आ लगाया तब भी कुछ नही कहा अति तब हुयी जब किसी भक्त ने मुख पे लगते में रंग साई की आँखों में चला गया अब लेखक लिखता है की बाबा आगबबूला हो गए बहुत सारे अपशब्द कहे तब चिंतन ये है की जब बाबा ने चेतावनी दी थी ये घटना होने को देख कर तब भी उन्होंने स्वीकारा की ये होगा ही पर उनके शब्दों का क्या समाज में प्रभाव पड़ेगा? की वेसे तो बाबा सिद्ध पुरुष आत्मसाक्षात्कारी पुरुष है तब भी इन्हें क्रोध और क्रोध तक ठीक है ये गालियाँ क्यों? क्या बाबा आत्मसाक्षात्कारी नही है इन्हें तो क्रोध आना ही नही चाहिए था?
आप साई चरित्र में पाएंगे की वे चाँद पाटिल के बिजली घोड़ी खोने के प्रसंग में चिलम पी रहे थे ये एक धूम्रपान है जो बुरा है हम भक्त अर्थ चाहे कितना सकारात्मक लगाये परन्तु साई चिलम सारी उम्र पीते रहे जो की उनका प्रिय भोग था आज कोई उन्हें चिलम नही पिलाता तब क्या अर्थ माने? आत्मसाक्षात्कारी को किसी बाहरी आनन्द को लेने की क्या आवश्यकता है? वो तो स्वयं आनन्ददाता है।
ऐसे ही रामकृष्ण परमहंस भी अपनी दैनिक भाषा में साले की गाली को अधिकतर उपयोग करते थे और जब विवेकानन्द विदेश से भारत आये और मिशन को चलाने को एक गुरु भाइयों की व्यक्तिगत सभा की उसमे इनके गुरु भाई शशि महराज ने स्वामी जी से कहा की भई नरेंद्र गुरुदेव ने तो किसी सम्प्रदाय अपने नाम पर चलने को नही कहा था ये तो तुम अपनी प्रसिद्धि को कर रहे हो इस पर अनेक बात हुयी तब विवेकानन्द ने कहा की मैं ऐसे किसी रामकृष्ण वामकृष्ण को नही जानता मानता जो एक मन्दिर पर कुछ लोगो को शक्तिपात देकर जीवन व्यतीत करता चला गया बल्कि मैं ऐसे रामकृष्ण को मानता हूँ जिसके कटाक्ष मात्र से लाखो विवेकानंद उत्पन्न हो जाते है और उठकर भवेशयुक्त सजल नेत्रों से चले गए तब गुरु भाइयों ने शशी को अंग्रेजी में यू बस्टर्ड आदि अपशब्द कहा तब जबकि ये सारे गुरु भाई आत्मसाक्षात्कारी और निर्विकल्प समाधि सिद्ध थे तब क्या माने की ये सभी भावो से और भावों की क्रिया प्रतिक्रिया से ऊपर क्यों नही उठ पाये?क्या इन्हें आत्मसाक्षात्कार और निर्विकल्प सिद्ध नही था?
ऐसे ही महात्मा बुद्ध ने स्त्रियों के संघ में प्रवेश को आनन्द के द्धारा प्रवेश दिए जाने पर प्रतिक्रिया व्यक्त की कि आनन्द जो सिद्धांत अनन्त वर्ष तक चलता वो अब पाँच सो वर्ष भी चल जाये तो बहुत मानो तब क्या बुद्ध आने वाले समय को नही देख पा रहे थे जैसा की आत्मसाक्षात्कारी पुरुष के विषय में कहा जाता है उसे आत्मसाक्षात्कार के समय उससे और मत सिद्धांत व् इसे मानने वाले भक्तों के अपने सम्बंधों को लेकर सब ज्ञात हो जाता है तब क्या माने बुद्ध होनी को नही टाल सके?
आप पढ़ते हो धर्मिक गर्न्थो में की कभी इस बात पर शिव क्रोधित हो गए या क्रोध में तांडव करने लगे सब प्रलय करी तो कभी पार्वती देवी ने क्रोधवश काली माता बनकर क्रोध में ऐसा किया तो कभी श्री राम को तो कभी श्री कृष्ण को आदि आदि घटनाओं से क्रोध आया तब ये इतने आत्मसाक्षात्कारी पुरुष और सती स्त्रियों का ये हाल है तब सामान्य का क्या होगा? और आत्मसाक्षात्कारी का यथार्थ क्या है?
तो उत्तर है की आत्मसाक्षात्कारी का अर्थ निष्क्रिय होना नही है बल्कि सर्वज्ञ होना और अखण्ड महाभाव में स्थिति है तब कोई क्रिया नही होती जो होता है वो इस संसार रूपी क्रियात्मक स्वरूप में जो अन्य दो गुण क्रियाशील है उनकी प्रतिक्रिया का उसी के उत्थान को उपयोग भर है यो आत्मसाक्षात्कार में भी स्तर भेद है-भक्ति के द्धारा आत्मसाक्षात्कार में जिसमे भक्ति से आत्म समर्पित है तब इष्ट और आत्मा एक होकर या यो कहे आत्मा इष्ट स्वरूप धारण कर इष्ट के रूप साक्षात्कार होता है इसमें द्रष्टा भी है और द्रश्य भी है अर्थात तुम भी हो और दूसरी और इष्ट स्वरूप तुम ही दूसरे हो जेसे मीरा और सूरदास को कृष्ण दिख रहे है सभी मनवांछित लीलाओ के साथ इसे द्धैताद्धैत भक्ति कहते है-दूसरा है केवल मैं अपने स्वरूप को सर्वत्र जीव जगत आदि के रूप में अखण्ड देख रहा हूँ जिसमें मैं सभी में समाहित हूँ अर्थात मुझे अपने साथ सभी कुछ अनुभूत हो रहा है ये सभी कुछ का विशाल महाभाव का स्वयं में अनुभूत होना है यो इसे विशिष्टाद्धैत आत्मसाक्षात्कार है और तीसरा है मैं ही सर्वत्र हूँ इसमें मैं अपने में भी और जो भी दृष्टिगोचर हो रहा है वह सब के द्धारा भी मैं स्वयं को अनुभूत कर रहा हूँ अर्थात दोनों और से द्रष्टा और सृष्टा और इन दोनों स्थिति का संचालन कर्ता व् भोगता और उपयोग्यता सब मैं ही हूँ यहाँ सर्व अखण्ड महाभाव समाप्त हो जाता है अनुभूत होना समाप्त हो जाता है क्योकि अनुभूत होना और अनुभूति का भाव होना भी द्धैत भाव ही होता है की कोई और भी है जब और कोई नही है केवल मैं ही हूँ ये अनुभव नही स्वभाव हो जो की यथार्थ में आत्मा का अखण्ड अवरूप और आत्मस्वभाव है यही स्वयं की प्राप्ति ही सम्पूर्ण आत्मसाक्षात्कार कहलाता है जो त्रिदेव या त्रिदेवी रूपी त्रिगुणों के एक हो जाने पर और उस एक के स्वयं में समाहित होने पर तथा वो एक मैं ही हूँ दूसरा कोई नही है तब खुद से खुदा और अहम ब्रह्मास्मि से उर्ध्व अहम सत्यास्मि कहलाता है।यही है यथार्थ आत्मसाक्षात्कार।तब ये अष्ट विकार क्रोध आदि जो आत्मा की अलप क्रिया शक्तियॉ है वे अष्ट सुकार शांति करुणा आदि अष्ट प्रतिक्रिया शक्ति है दोनों मिलकर एक निर्विकल्प यानि ना क्रिया है ना प्रतिक्रिया है है तो केवल स्वयं तब ही ये क्रोधआदि समाप्त होते है चूँकि ये संसार मन और मन की शक्ति माया और इनका संचालन कर्ता व् उपभोगता आदि भाव से निर्मित है तबतक ये सब अष्ट विकार ओर अष्ट सुकर के दर्शन और अनुभूति होती है यो यथार्थ आत्मसाक्षात्कार के उपरांत कुछ शेष नही रहता है यो जानो ये जितने योगी हुए है और होंगे वे सब स्वयं में संसार का जीवन्त स्वरूप लिए होने से इन सब विकार और सुकारों से परे सामान्य दृष्टि से नही दिखाई देते है।
सत्यास्मि उवाच्
ये संसार मन माया मनुष्य
बना शब्द रूप रस गन्ध।
स्पर्श बोध जब तक शरीर
सूक्ष्म अतिसूक्ष्म तक सब द्धंद।।
तब तक काम क्रोध अष्ट विकार सब
और करुणा शांति अष्ट सुकार।
प्रकट क्रिया प्रतिक्रिया फल
है खण्ड महाभाव सर्वत्र उपहार।।
प्रेम भी अंत नही है
अंत अर्थ नही है अंत।
चैतन्य स्वयं सर्वत्र एकमेव परे
वही आत्मसाक्षात्कार जीवंत।।
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