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स्त्री की कुंडलिनी पुरुष की कुंडलिनी से पूर्णतया भिन्न है,[स्त्री का स्वाधिष्ठान चक्र]:

स्त्री की कुंडलिनी पुरुष की कुंडलिनी से पूर्णतया भिन्न है,[स्त्री का स्वाधिष्ठान चक्र]:- के विषय में सत्यास्मि मिशन की खोज को बता रहे है स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…

स्वाधिष्ठान चक्र का अर्थ है-स्वयं का निवास।यानि जहाँ इस शरीर का मूल बीज मैं या अहं रहता हो।यहाँ रहने का अर्थ-क्षेत्र या ग्रन्थि,चक्र,निवास आदि है।और ये चक्र मनुष्य की जननेंद्रिय के ऊपर बाल वाले स्थान पर होता है,मुख्य बात ये है की-कुण्डलिनी के ये सभी चक्र मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में होते है,बाहरी तोर पर तो ये सब चक्र इस भौतिक शरीर में स्नायुविक नाड़ियों से बने होते है,और जिस स्वाधिष्ठान चक्र की यहाँ बात की जा रही है,वह प्राणमय शरीर और मनोमय शरीर के उपरांत सूक्ष्म शरीर में होता है,पर ये या सभी चक्र बाहरी शरीर के अभ्यास से ही अंदर प्रकट होता है,जैसे-दूध से दही और दही के बिलोने पर मक्खन यो समझों की ये मक्खन को तप्त करने पर जो घी निकलता है,वो सूक्ष्म शरीर है और जेसे दूध से लेकर बिलोते हुए जो घी तक स्तर बनते है,वे स्तर चक्र है और जो घी की शक्ति होती है,ठीक वेसे ही ये सब चक्र शक्तियां ही है।और इस पंचत्तवि शरीर में स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व का मूल बीज और तत्व शक्ति का निवास है।
तब अभ्यास से इसी अवस्था में यानि स्वाधिष्ठान चक्र तक जब कुण्डलिनी चढ़ती है,तब साधक को अपने होने का उच्चतर और बड़े सामर्थ्य की शक्ति प्राप्ति के साथ अनुभव और सिद्धि होती है।पर यहाँ उसका अहंकार अशुद्ध होने से वो अहंकारी बनता है।यो जितने भी योगी और देव या दानव हुए,वे इसी चक्र पर पहुँच कर अहंकार के वशीभूत होकर भृष्ट भी हुए है।और इस चक्र की सही सही सिद्धि होने पर साधक अपने अनगिन सूक्ष्म और स्थूल शरीरों का या स्वरूपों का निर्माण कर सकता है।यहां उसका बीज यानि वीर्य या रज की पूर्ण जागर्ति होती है और उसके ऊपर उसकी पक्की पकड़ यानि सिद्धि प्राप्त होती है।तब साधक इस चक्र में स्थित होकर अपने बीज से स्वयं के संकल्प शक्ति का प्रवेश या उसकी साहयता से अपने अनन्त बीज से प्रकर्ति से संयुक्त होकर प्रकर्ति के गर्भ से अनन्त शरीर या स्वरूप उत्पन्न कर सकता है।ठीक इसी चक्र की साहयता से सभी देवी और देव आदि जेसे दुर्गासप्तशती का रक्तबीज राक्षस अपने रक्त यानि बीज की भूमि यानि प्रकर्ति में डालकर अनगिनत रूप पैदा कर देता था।तभी काली ने खप्पर में भरकर और पीकर उसके बीजों को भूमि यानि प्रकर्ति से नहीं जुड़ने दिया और उसे मार डाला।स्वाधिष्ठान चक्र पर विजय प्राप्त करके ही रावण ने दस सर व् मायाविक शक्ति पायी थी।इसी चक्र में स्वयं की आत्मा में जितना भी भौतिक पदार्थ का ज्ञान है,उसे और उसकी शक्ति को प्राप्त किया जाता है।यहीं पर इस संसार के सभी भौतिक विज्ञानं की पूर्णता है।
पहले हम पुरुष के स्वाधिष्ठान चक्र के चित्रण को ध्यान से देखें तो आपको इसके मध्य में एक दूज का चाँद नजर आएगा।जो इस स्वाधिष्ठान चक्र के मध्य में सूर्य का ऊपर की और सिमटने से नीचे की और रिक्त स्थान होने से प्रकाश की कम मात्रा छाया जिसे चन्द्र भी कहते है,उससे बना है।यहाँ रहस्य ये है की-पुरुष के स्वाधिष्ठान चक्र के स्थान पर भौतिक शरीर में यहाँ भौतिक चक्र में जिसे स्नायु चक्र कहते है,वहाँ उसका वीर्य बीज स्थापित होता है।यो इस चक्र में “वं” बीज मंत्र लिखा है।वं-यानि वीर्य का संछिप्त बीज रूप वं है।
जैसे-मूलाधार चक्र में-लं का लिंग-स्वाधिष्ठान चक्र में-वं का वीर्य-नाभि चक्र में-रं-रमण यहाँ पुरुष के वीर्य में स्थित उसके स्त्री-X और उसके पुरुष-Y और तीसरा पुरुष का अर्द्ध बीज-y1/2 का परस्पर रमित होना अर्थ रमण है।और ह्रदय चक्र में- यं-यानि पुरुष योनि यानि यहाँ ये पुरुष लिंगभेद का संछिप्त अर्थ है-की पुरुष योनि में जन्म लेना।
हं-हम यानि स्वयं की हम रूप में रूप में उपस्थिति है।ये पंचतत्व बीज और अर्थ हुए।इससे ऊपर आज्ञा चक्र में आत्मप्रकाश और सहस्त्रार चक्र में स्वयं की और अपने में ही स्थित अपने विपरीत लिंग का संयुक्त रूप जिसे युगल दर्शन कहते है,उसका साक्षात्कार होता है।इससे ऊपर अलिंग आत्मदर्शन होता है।

थोड़ा सा पुरुष व् स्त्री के मूलाधार चक्र के विषय को समझाता हूँ,ताकि स्वाधिष्ठान चक्र का चित्र समझ आएगा की- पुरुष के मूलाधार चक्र में अमावस का चन्द्रमा है,यो वहाँ तमगुण यानि अंधकार में ये चक्र स्थापित है।उसे स्त्री यानि प्रकर्ति जो सदा जाग्रत है,वो अपने सहयोग से यानि आकर्षण शक्ति से जाग्रत करती है।यो स्त्री के मूलाधार चक्र में चन्द्रमा है और फिर आगे पुरुष के स्वाधिष्ठान चक्र में अमावस को मिटाता ऊपर को गति करता हुआ प्रकाशित सूर्य है।जिसको योग विज्ञानं रूप में-ऊपर बताये गए त्रिगुण बीज के चित्रित रूप में दिखाया गया है।स्वाधिष्ठान चक्र में जो नीचे अर्द्ध प्रकाशित चन्द्र यानि दूज का चन्द्र है,वो पुरुष के वीर्य में स्थित स्त्री शक्ति बीज X है और पुरुष शक्ति का रूप अधिक है जो ऊपर को स्थित उगता हुआ या प्रकाशित होता सूर्य है जो पुरुष का Y है और इनके सन्धिकाल में दोनों को मिलाता और उनके प्रतिशत भाग से बना पुरुष का अर्द्ध बीज y1/2 है।और चारों और 6 पंखुड़िया इस पुरुष वीर्य की 6 शक्तियां है।
जो यहाँ 6 कलाएं दर्शाती पत्तियां दिखाई गयी है।
यानि क्रोध, घृणा, वैमनस्य, क्रूरता, अभिलाषा और गर्व। अन्य प्रमुख गुण जो हमारे विकास को रोकते हैं, वे हैं आलस्य, भय, संदेह, बदला, ईर्ष्या और लोभ।
ठीक ऐसे ही स्त्री के मूलाधार चक्र में दो बीज है-1-भं-2-यं।भं स्त्री का बाहरी क्षेत्र भगपीठ का बीज मंत्र नाम है और यं स्त्री का अंदरुनी क्षेत्र योनिपीठ का बीजमंत्र नाम है।परंतु चक्र के मूल में केवल भं ही मुख्य बीज मंत्र स्थापित है।
श्री-भग-योनि-पीठ-यानि स्त्री के मूलाधार चक्र की चार पत्तियों में ये चार बीजमंत्र स्थापित है-1-श्रीं-2-भं-3-यं-4–पं
और यहाँ मूलाधार चक्र में चन्द्रमाँ का कम प्रकाशित पूरा रूप होता है।जिसके चारों कोनों पर उलटे से सीधी और को चलते चक्र में ये 4 बीजमंत्र स्थापित है।उल्टा चक्र क्यों? क्योकि पुरुष में ऋण शक्ति है,यो उसके चक्र की चार पत्तियां सीधे से उलटी और चलती यानि घूमती है और स्त्री में धन शक्ति है,यो उसकी चार पत्तियां सीधे से उलटी और घूमती है।तभी तो दोनों पुरुष और स्त्री में ऋण+धन या विकर्षण+आकर्षण का सम्बन्ध बनता है।
यही सम्बन्ध दोनों में गुरु के शक्तिपात से या दोनों के परस्पर किये गए रमण क्रिया के शक्तिपात से घटित होकर बनता है।और तब उस प्राप्त ऊर्जा को लेकर अपने में अनुलोम विलोम क्रिया करते हुए जप और ध्यान करने से शीघ्र कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होती है।

ठीक ऐसे ही पुरुष के स्वाधिष्ठान चक्र के विपरीत स्त्री का ऐसे ही व्याख्या करता स्वाधिष्ठान चक्र और उसका चित्र है।

पुरुष के स्वाधिष्ठान का रंग:-

पुरुष के स्वाधिष्ठान चक्र का रंग संतरी या सिंदूरी यानि प्रातः के सूर्य की आभा वाला रंग होता है।जो पुरुष तत्व का प्रतीक है।

स्त्री के स्वाधिष्ठान का रंग:-

तोताई सा हरित रंग होता है,जो उसकी स्वयं की प्रकर्ति तत्व है,उसके नीचे की और नीलवर्ण जल तत्व है,जो सृष्टि और जीवन प्रतीक है।उससे नीचे चौथ का चन्द्रमाँ है,जो अंत तक उसके आवरण को घेरे है,ये स्त्री के अर्थ,काम,धर्म,मोक्ष के चार गुण यानि मन,,बुद्धि,चित्त,अहंकार का विकासशील प्रतीक है।तभी इसी के बाहरी प्रतीक अर्थ देता भौतिक जगत में ये करवाचोथ का व्रत प्रारम्भ हुआ।जिसका सही अर्थ ये है।
और इन चारों के असंतुलन या अविकास से ये छः विकार उत्पन्न होते है-मोह,लोभ,द्धेष,क्रोध,भय,भ्रम। और इनकी शुद्धि उसकी आत्मा के इन चारों विकासों को सम्पूर्णता देता उसका आत्म मंत्र- सत्य ॐ सिद्धायै नमः है।
जिसमें नीचे का भाग चतुर्थी का चन्द्रमाँ जो अमावस्या के उपरांत का उदित यानि उभरता प्रकाशित चन्द्रमाँ है।यानि यहाँ चन्द्रमाँ जो स्त्री शक्ति है,उसका बीज है,वो सक्रिय अवस्था में है और उसकी सक्रियता अभी 16 कला यानि 16 प्रतिशत में से चार प्रतिशत हुयी है,यो वहाँ पूर्णिमां के चार स्वरूप चतुर्थी कला यानि-1-गाय-2-गंगा-3-गायत्री-4-पृथ्वी के रूप उस चतुर्थ स्वरूप को स्त्री के चार प्रमुख गुणों के रूप में प्रकाशित हुये है।जैसे-1-गंगा के चार कुम्भ तीर्थ-2-गाय में व्याप्त चार-अर्थ-काम-धर्म-मोक्ष धर्म और चौथी गायत्री में चार वेद और चार स्त्री युग और स्त्री का मूल स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित गर्भ यानि पृथ्वी देवी और उसका बीजमंत्र गं प्रकाशित है।और यहाँ 16 प्रतिशत का अर्थ 100% की भांति ही सम्पूर्णता है।प्रतिमाह में 15 अमावस के दिन और 15 पूर्णमासी के दिन और दो स्त्री और पुरुष रूपी ये दो अमावस+पूर्णिमासी के लय+सृष्टि के दिन=32 और फिर 12 माह आदि की संयुक्त गणना।यो यहाँ 16 कला को 16% सम्पूर्ण माना है। और ऐसे
और इससे ऊपर जो नीलवर्ण रूपी 4% नीला भाग, वो स्त्री में स्थित पुरुष शक्ति का 4% रूप X1 है और ऊपर का शेष भाग हरित स्त्री शक्ति का रूप X है।और इन दोनों के बीच का ये जो संधिकाल या मिलन है,वहां स्थित है-स्त्री का अर्द्ध बीज x1/2 और इन सबके चारों और विश्व वृत यानि क्षेत्र के और उससे स्त्री शक्ति का स्वयं की जगत में प्रकाशित होती स्थिति को दर्शाते 6 पत्तियां उसकी 6 शक्तियां या गुण है।गुण और अवगुण स्त्री और पुरुष में समान ही है,जो ऊपर दिए गए है।

भं बीज:-

भ+अ+अंग या म्,यहाँ भ-स्त्री तत्व X,अ-स्त्री में व्याप्त पुरुष तत्व X1 है और म्-ये स्त्री का मूल अर्द्ध बीज x1/2 है,जो पुरुष के अर्ध बीज y1/2 से भोग द्धारा पूरा होकर नवीन जीव सृष्टि करता है।तब भं बीज मंत्र भग,भूमि,योनि,जल,तेज या भर्ग से भर्गो तक व्याप्त होता जाता है।यो स्त्री का स्वाधिष्ठान चक्र पुरुष के स्वाधिष्ठान चक्र से सम्पूर्णतया अलग है।यो स्त्री को अभी अपनी योग उन्नति और उसकी सर्वोच्चता के लिए और भी खोज करनी होंगी।तब उसे भौतिक और आध्यात्मिक शक्ति में पुरुष के समान समानता मिलेगी।यही सत्यास्मि मिशन का विषय है।जो आज तक किसी धर्म में किसी अवतार या योगी ने नहीं खोजा है।
इस विषय में और भी विस्तार से आगामी लेख में बताऊंगा और आगामी स्त्री का नाभि चक्र के विषय में बताऊंगा की-वो पुरुष के नाभि चक्र से कैसे भिन्न है।

स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
Www.satyasmeemission.org

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