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प्रत्यक्ष नवरात्रि हो या गुप्त नवरात्रि उसमें सभी शक्ति की उपासना करते है,शक्ति मतलब प्रत्येक व्यक्ति की कुंडलिनी शक्ति,ओर वो पुरुष में उसके मूलाधारचक्र में होती है,ओर स्त्री के मूलाधार चक्र जिसे श्रीभगपीठ भी कहते है,उसे योग भाषा मे योनि भी कहते है,पर योग तंत्र में योनि अर्थ बिल्कुल भिन्न है,इस योनि तन्त्र रहस्य के ज्ञान को प्राच्यविद्यज्ञ स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी अपने सत्संग ग्रँथ में लिखे दोहात्मक भाषा मे भक्तो को बता रहें है कि..

प्रत्यक्ष नवरात्रि हो या गुप्त नवरात्रि उसमें सभी शक्ति की उपासना करते है,शक्ति मतलब प्रत्येक व्यक्ति की कुंडलिनी शक्ति,ओर वो पुरुष में उसके मूलाधारचक्र में होती है,ओर स्त्री के मूलाधार चक्र जिसे श्रीभगपीठ भी कहते है,उसे योग भाषा मे योनि भी कहते है,पर योग तंत्र में योनि अर्थ बिल्कुल भिन्न है,इस योनि तन्त्र रहस्य के ज्ञान को प्राच्यविद्यज्ञ स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी अपने सत्संग ग्रँथ में लिखे दोहात्मक भाषा मे भक्तो को बता रहें है कि..

तंत्रशास्त्रो में योनितंत्र के विषय में अनेक धारणाये है और कथित तांत्रिको ने बहुत ही भ्रमात्मक धारणाये फेला रखी है, जिससे इस अतिउच्चतम विद्या का विभत्सव रूप समाज में फैला है, जो की बिलकुल गलत है, जिस प्रकार पुरुषो की कुंडलिनी जागरण उनके अपने मूलाधार यानि लिंग चक्र स्थान यानी स्वयं के शिवलिंग का ध्यान करने से जाग्रत होती है,ओर उन्हें भैरव कहा जाता है, ठीक उसी प्रकार स्त्री साधिका को जिसे तंत्र मार्ग यानी सिस्टेमेटिक वे यानी क्रमबद्ध मार्ग में भैरवी कहा जाता है, और स्त्री की कुंडलिनी जागरण उनके मूलाधार यानि योनि चक्र से होती है, इस कारण वैसे तो इसमें पुरुष का कोई अर्थ नही है।असल मे आध्यात्मिक जागरण साधना करने पर ही मूलाधार चक्र में भी दो प्रकार के त्रिकोण बनते है-पुरुष में इंगला ओर पिंगला नाड़ी के योग से सुषम्ना नामक तीसरा कोण बनता है,जो ऊपर की ओर मुख किये होता है,जिसका आकार देखने मे योनि होता है,वैसे भी हमारे पुरुष हो या स्त्री दोने के लिंग व योनि भाग के बाहरी हिस्से को देखे,जहाँ बाल होते है,तो वो पेट की ओर से गुदा की ओर तक त्रिकोण आकार का होता है।जो नीचे की ओर मुख किये होता है,यो जन्म के प्रारम्भ से ही पुरुष हो या स्त्री दोनों को योनि मुद्रा त्रिकोण की ही प्राप्ति होती है,यो ही योग भाषा मे इस भौतिक प्रकृति के रूप में कुंडलिनी का मनुष्य में बाहरी मार्ग का खुला होना और सोये होना माना गया है,इसे ही अंदरूनी रूप से साधना के माध्यम से जाग्रत करना ही तंत्र का विषय है,इस अवस्था को भी योनि कहा गया है,ओर स्त्री में तो ये इंगला पिंगला का योग से सुषम्ना का त्रिकोण बनना योनि मुद्रा की अधिकता है ओर सृष्टि करना प्रथम अवस्था है,पर अंदर की शक्ति को ऊपर उठाकर जब इस त्रिकोण को पलटा जाता है,तब दोनों में ये त्रिकोण यानी योनि चक्र या योनि मुद्रा, आज्ञाचक्र में सहस्त्रार की ओर को बनता है,इस सम्बंध में योगी अपनी अभ्यास से दोनों आंखों और आज्ञाचक्र में स्थित कल्पित बिंदु का ध्यान करते है,ओर अपनी जीभ को ऊपर की ओर तालु में लगाते है,ऐसे करके मुख ओर नेत्र से त्रिकोण बनाते है,जो कुंडलिनी जाग्रत होने पर स्वयं बनता है,इस कृतिम योग की योनि मुद्रा बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती है,ओर ये योनि मुद्रा असल मे गुरु के शिष्य में शक्तिपात रूपी शक्ति देने से शिष्य के मन शरीर यानी सूक्ष्म शरीर से रमण नामक क्रिया योग के करने पर,जिसे सच्ची दीक्षा कहते है,उसके घटित होने पर ही शिष्य का बाहरी मन पलटकर अंतर मन के साथ एक हो जाने पर ही सच्ची कुंडलिनी जाग्रत होने पर जीभ खुद ही ऊपर की ओर उठकर तालु में लग जाती है,इसे ही सच्ची खेचरी मुद्रा भी कहते है,इसके बाद ही योनि मुद्रा की अवस्था आती है और तब जीभ के साथ साथ स्वयं बिन प्रयास करे दोनों नेत्र भी ऊपर की ओर द्रष्टि करके चित्त की पूर्ण एकाग्रता की स्थिति से उत्पन्न ज्योतिर्मय बिंदु में स्थित हो जाते है ओर तब समाधि का प्रारम्भ होता है,ओर यही सच्ची योनि मुद्रा ओर उसकी सिद्धि भी है,जो बिना गुरु के शक्तिपात के असम्भव है,यो ही योगियों ने पति पत्नी या चरित्र रखकर साधक भैरव व साधिका भैरवी का साधनागत रमण क्रिया योग के सम्पूर्ण तरीके को तंत्र विद्या में खेचरी फिर योनिमुद्रा की विधिवत सिद्धि ज्ञान को छिपाकर गुरु माध्यम से करना बताया है और यहाँ इस स्थिति से निष्क्रिय ब्रह्मचर्य यानी केवल लँगोटी बाजी के कृतिम अभ्यास से परे ओर इससे से ऊंची अवस्था सक्रिय ब्रह्मचर्य का विषय और सद ग्रहस्थ में सद्चरित्र की साधना है, ध्यान रहे कि इसमें स्वतंत्र वासना के नाम पर चरित्रहीन शारारिक सम्बन्धो से बडा भारी अनिष्ट व् साधना भंग होती है, जिसको सत्यास्मि धर्म दर्शन में बहुत ही उत्तम सम्पूर्ण प्रकार से समझाया गया है जो इस प्रकार से है..

सत्यास्मि योनि तंत्रार्थ यानी योनि का सच्चा अर्थ क्या है,इसे ज्ञान से समझे:-

यति सति यही मोछ गति
ओम् औरत त्रिगुणातीत।
नारि मातृ षोढ़षी पूर्णिमा
ईश्वरी बन चतुर्थ योनितंत्रातीत।।

शाक्त मत कुंडलिनी जागरण
योनि तन्त्र विज्ञानं रहस्य।
भैरवी नाम स्त्री साधिका
इग्ला चन्द्र सिद्धि इस रहस्य।।

योनि अर्थ चतुर्थ दल कमल
मूलाधार मध्य चन्द्र बीज।
चन्द्र नाड़ी यहाँ आसरा
स्त्री शक्ति सहस्त्र तक रीझ।।

ब्रह्मचर्य यहाँ मूल विषय
सद ग्रहस्थ करे इस साध्य।
व्यर्थ वासना विनाश सिद्ध
सिद्ध गुरु प्रत्यक्ष आराध्य।।

त्रिगुण यहाँ ॐ मन्त्र
जपे अं उं मं संग ॐ।
मूलाधार कमल हो ध्यान विषय
ज्योतिर्मय बिंदु ऊर्जित सोम।।

यहाँ स्त्री जपे गायत्री
या जपे ऐं ह्रीं क्लीं।
निज योनि चक्र का ध्यान कर
या केवल जपे मन्त्र “ईँ”।।

जप गुरु मन्त्र की साधिका
वो जपे गुरु का मन्त्र।
जगे योनि चक्र सिद्धि सहित
स्त्री सिद्ध शक्ति योनि तन्त्र।।

पुरुष उपासना वर्जित यहाँ
और पुरुष साधक का संग।
साधक स्त्री आराध्य भी
नर से योनि साधना भंग।।

दस महाविद्या की सिद्धियाँ
योनि तन्त्र की देन।
पुरुष प्रवेश माँ अर्थ रख
पत्नी भोग्या यहाँ असेन।।

द्वय दल मूलाधार बर्हि
और द्वय दल आज्ञा चक्र।
स्थूल सूक्ष्म शक्ति मिलन अर्थ
मूल से कुंडलिनी जगती वक्र।।

पूरक करे मूलाधार तक
मूल से रेचक आज्ञाचक्र।
प्राणायाम अर्थ योनि तंत्र में
जगे कुंडलिनी योनि चक्र।।

त्रिदेवीयाँ कौन व क्या है:-
सरस्वती इग्ला की देवी
और पिग्ला देवी काली।
सुषम्ना की शक्ति लछमी
योनि तंत्र त्रिदेवी माली।।

चार नवरात्रि पूजन यहाँ
नवांग भक्ति यहाँ साध्य।
षोढ़ष कला प्रेम पूर्णिमा
आत्मसाक्षात्कार यहाँ आराध्य।।

सात सागर योनि तंत्र में
और जाग्रत चौबीस तत्व।
सेवक चौसठ योगनी
छत्तीस यक्षणी सत्व गत्व।।

सात सागर क्या ओर कौन से है:-
श्री सागर मूलाधार में
सोम सागर स्वाधिष्ठान।
हरित नाभि मध्य है
ह्रदय अक्षत सागर जान।।

कंठ चक्र में कृति सागर
आज्ञाचक्र में क्षण।
सति सागर सहस्त्रार मध्य
सात सागर योनि पर्ण।।

चार पीठ क्या है:-

चार पीठ योनि तन्त्र में
प्रथम षोढ़ष पीठ।
दूजा प्रेम वधु पीठ
तीजा मातृ चतुर्थ श्रीभगपीठ।।

सौलह रत्न क्या है:-

सोलह रत्न योनि प्रसव
साधन तत्व यव ॐ।
मृत्यु इच्छा दुःख धर्म
आकाश यज्ञ एश्वर्य नरहोम।।

चौदह रत्न परा के दाता
पन्द्रहवाँ रत्न है मोक्ष।
सोलहवाँ रत्न हंस आत्मा
योनि प्रसव पूर्णिमा परोक्ष।।

नवदा भक्ति क्या होती है:-

पहली भक्ति कामना
दूजी भक्ति स्विक्षा।
सष्टि तीजी भक्ति यहाँ
भक्ति चौथी दीक्षा।।

पंचम भक्ति अक्षरी
छट भक्ति है दान।
सप्तम भक्ति रसिक है
अष्टम भक्ति ज्ञान।।

यो ग्रहस्थ मनाये अष्टमी
नवमी भक्ति पूर्णिमा।
भक्ति शक्ति मिल नवरात्रि
यही योनितंत्र की महिमा।।

इस महाज्ञान को बारम्बार पढ़ो पर इसमें छिपा गूढ़ रहस्य को समझो तथा नवरात्रि साधना करो और अपने मित्रो को भेज ज्ञान पूण्य कमाए।

स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
Www.satyasmeemission.org

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