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क्या प्रेम पूर्णिमां व्रत द्धारा पति पत्नी में भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण और सभी लौकिक व् अलौकिक मनोकामनाओं की पूर्ति के साथ अंत में आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हो सकती है? इस विषय पर महर्षि अत्रि मुनि और उनकी पत्नी अनुसूया का भक्तों को उत्तर…[भाग-3]

क्या प्रेम पूर्णिमां व्रत द्धारा पति पत्नी में भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण और सभी लौकिक व् अलौकिक मनोकामनाओं की पूर्ति के साथ अंत में आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति हो सकती है? इस विषय पर महर्षि अत्रि मुनि और उनकी पत्नी अनुसूया का भक्तों को उत्तर…

             [भाग-3]

हे-माता आप हमें दिव्य प्रेम की प्राप्ति के लिए तन की शुद्धि को वो क्रिया योग बताये,जिस प्रेमिक और प्रेमी या पति और पत्नी परस्पर करके शुद्ध और सिद्ध हो सकते है?

ये सुनकर सती अनुसूया ने सबको तन यानि शारारिक भोग और योग को एक साथ सिद्ध करने वाला परम् गोपनीय रेहि क्रिया योग के विषय में कहना प्रारम्भ किया की-

“”रेहि क्रिया योग””

रेहि–दो शब्दों से बना है-
1-रे-2-हि।
इसका सामन्य सा अर्थ है-1-रे-अपनी आत्मा और-2-हि-का साक्षात्कार करना।
रेहि-मूल रूप से चार अक्षर से बना है-र+ऐ+ह+ई=रेहि।
र-आत्मा-ऐ-आत्मा की आनन्द ऐच्छिक यानि समस्त आनन्द इच्छाये और उनका समहू,जिसे योग में मन कहते है और-ह-हम यानि स्वयं व्यक्ति की साकार उपस्तिथि यानि शरीर, जो स्त्री(+,धन शक्ति) और पुरुष(-,ऋण शक्ति) के रूप में आत्मा के दो भाग है,जिन्हें मिलाकर ही परमात्मा बनता है और- ई – ईश्वर यानि प्रत्येक आत्मा का सर्वोच्चत्तम स्वरूप और उपलब्धि होना।

यो रेहि का अर्थ है-अपनी आत्मा की समस्त आनन्द इच्छाओं के सूक्ष्म शरीर मन के द्धारा इस प्रत्यक्ष स्त्री और पुरुष के साकार शरीर के माध्यम से एक करके ईश्वरत्त्व को प्राप्त करना।और इस प्राप्ति के सभी भागों में जो एक होने की स्थिति आती है-वह रेहि योग के दो भाग-1-सूक्ष्म यानि आध्यात्मिक मिलन की क्रिया जिसे योग रमण कहते है और-2-स्थूल यानि भौतिक मिलन की क्रिया जिसे भोग रमण कहते है।
यानि भोग माने कर्म करना और योग माने किये गए कर्म को अपने व्यवहार में लाना ही भोग+योग=रमण यानि रेहि क्रिया कहलाती है।

रेहि का और अर्थ है:-रमण..यानि आत्म मन्थन करना।और-चक्र चलना।इसे ही साइकिक चक्र यानि आत्म ऊर्जा के चक्र को चलना यानि कुण्डलिनी जाग्रत करना है।
यो संसार में इस रेहि के दो चक्र चलाने के क्रिया योग रूप है।

यहाँ पुरुष और स्त्री के सूक्ष्म से लेकर स्थूल शरीर तक में अलग अलग बीजमन्त्र और चक्र है,ये बताती हूँ:-

“”पुरुष कुंडलिनी बीजमंत्र और चित्र:-“”

पुरुषवादी ये 5 बीज मंत्र का अर्थ इस प्रकार से है,जो आज तक किसी भी धर्म ग्रंथ में नहीं दिया गया है आओ जाने:-

1-लं – पुरुष लिंग का संछिप्त अर्थ रूप।

2-वं – पुरुष वीर्य का संछिप्त अर्थ रूप।

3-रं – रमण यानि पुरुष में व्याप्त विकर्षण शक्ति(-) का संछिप्त अर्थ रूप है।यानि स्त्री में जो आकर्षण शक्ति(+) है, उससे मिलकर जो क्रिया योग को सम्पन्न होता है,वह रमण है।

4-यं – यानि पुरुष योनि यानि लिंगभेद अर्थ का संछिप्त रूप है-की ये आत्मा पुरुष योनि में जन्मी है।

5- हं – हम् यानि पुरुष की स्वरूप की उपस्तिथि का संछिप्त अर्थ रूप है।

और आपको समझ आया होगा की- ये 5 बीज मंत्र केवल पुरुष और उसकी शक्ति को ही दर्शाते और प्रकट करते है।
बाकी 7 चक्र-मूलाधार चक्र से सहत्रार चक्र तक का अर्थ दोनों के लिए लगभग समान ही है।यानि मूलाधार का अर्थ है-स्त्री हो या पुरुष इन दोनों का मुलेन्द्रिय स्थान अर्थ है।यही और भी मानो।

2-“स्त्री की कुंडलीनी के बीज मंत्र और चित्र दर्शन””:-

*-मूलाधार चक्र:–का चित्र-() यानि मध्यम प्रकाशित पूर्णिमा जैसा चंदमा और उसके दोनों और दो श्वेत पत्तियां – बीज मंत्र है-भं- अर्थ है-भग या योनि-भूमि तत्व।

*-स्वाधिष्ठान चक्र:-हरित पृथ्वी पर बैठी हरे रंग की साड़ी पहने सांवले रंग की स्त्री-बीज मन्त्र है-गं-अर्थ है-गर्भ-भ्रूण-ग्रीष्म-अग्नि।

*-नाभि चक्र:- ये भी हरित प्रकाशित पृथ्वी पर अर्द्ध लेटी हुयी सांवले रंग की स्त्री में ही संयुक्त है-बीज मंत्र है-सं-अर्थ है-सृष्टि-सत्-जल।

*-ह्रदय चक्र-गुलाबी रंग से प्रकाशित पृथ्वी पर गुलाबी रंग की साड़ी पहने अर्द्ध तिरछी लेटी हुयी गौरवर्ण वाली स्त्री-बीज मंत्र है-चं- अर्थ है-चरम-चन्द्रमाँ-मन-वायु।

*-कंठ चक्र-ये गुलाबी रंग वाली पृथ्वी और स्त्री के ही अधीन है-बीज मंत्र है-मं- अर्थ है-मम् यानि स्वयं-ज्ञानी मैं-माँ-महः तत्व-आकाश।

*-आज्ञा चक्र-यहाँ केवल स्निग्धता लिए दुधिया रंग का प्रकाशित चन्द्र की पूर्णिमा से चारों और अनन्त में बरसता हुआ अद्धभुत प्रकाश-बीज मंत्र है-गुंजयमान ॐ –अं+उं+मं=बिंदु से अनन्त होता सिंधु जैसा चपटा चक्र।निराकार।

*-सहस्त्रार चक्र-केवल स्त्री का स्वयं आत्म स्वरूप साकार जो प्रकाशित चन्द्र का पूर्णिमा प्रकाश से दैदीप्यमान होकर अनन्त से अनन्त तक शाश्वत बनकर आलोकित है।

विश्व का सबसे प्राचीन और सरल और सम्पूर्ण सिद्धांत दर्शन-और इसी विधि को सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ में वर्णित किया है,अब “रेहि” क्रिया योग की प्रथम और द्धितीय विधि बताती हूँ:-

आओ पहले इस रेहि क्रिया योग के प्रथम “नवांग स्तरों” को जाने,जो की 9 भागों में इस प्रकार से है की:-

1-नवांग योग:-

0-शून्य-1-स्थिर-2-स्थित-3-संगम-4-द्रष्टा-5-स्रष्टा-6-सर्वज्ञ-7-सर्वत्र-8-सम्पूर्ण-9-सत्य।

2-दीक्षा योग:-

दीक्षा का अर्थ:-

स्त्री और पुरुष के परस्पर प्रेम के आदान प्रदान को दीक्षा-“-द-द्धैत और इक्षा-शाश्वत प्रेम” यानि दीक्षा कहते है।

रेहि क्रिया योग की प्रथम विधि बताती हूँ :-

यहाँ दी गयी रेहि क्रिया योग की एक विधि उन भक्तों के लिए है,जो ब्रह्मचारी है और जिन्होंने गुरु से शक्तिपात दीक्षा नहीं ली हुयी है।इस विधि से रेहि क्रिया योग ध्यान करने से भी अवश्य प्रत्येक मनुष्य को भोतिक और आध्यात्मिक उच्चतम लाभ होंगे।तो भक्तों प्रथम “सत्य ॐ सिद्धायै नमः” सिद्धसिद्ध महामंत्र का जप प्रारम्भ करें और अपनी आँखे बंद करें और अब सबसे पहले अपने आसन में बैठे दोनों पैरों को देखें और मन्त्र पढ़े,अब पेट का ध्यान करते हुए मंत्र पढ़े,ऐसे ही एक एक करके अपनी छाती फिर गला फिर अपना चेहरा फिर माथा फिर अपने सर का ऊपरी सम्पूर्ण भाग का ध्यान करते हुए मंत्र जपे और वहाँ कुछ समय ध्यान और जप करने के उपरांत फिर से अपना माथा फिर चेहरा मन की आँखों से देखते हुए इसी क्रम में अपने बेठे हुए पैरों तक मंत्र जप करते ध्यान करें।ठीक अब फिर सर तक मंत्र जप के साथ ध्यान करते हुए जाये।यो ही कम से कम 21 बार और अधिक 108 बार ये मंत्र से ध्यान विधि करें तो आपके शरीर में ही नो ग्रह है-सिर के मध्य भाग में सूर्य और मस्तक आज्ञाचक्र में चन्द्र और कण्ठ में बुध तथा ह्रदय में गुरु और नाभि में मंगल और जनेंद्रिय से कुछ ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र में शनि और मूलाधार चक्र में शुक्र ग्रह का शोधन होकर सभी ग्रह यानि तुम्हारी सामर्थ्य शक्ति शुद्ध होकर तुम्हारे अनुकूल होकर उनके सभी भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों के उच्चतम लाभ तुम्हे प्राप्त होंगे।यो शीघ्र ही ऐसा प्रातः और साय निरन्तर करने से मन चित्त एकाग्र होकर अनन्त लाभों के साथ तुम दिव्य प्रकाश से भर उठोगे और आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होगी।और आगामी गृहस्थी योग में जाने पर प्रेम योग की सिद्धि प्राप्त होगी।

अब इस रेहि के द्धितीय शक्तिपात दीक्षा योग विधि बताती हूँ :-

-यानि जीवंत शक्तिपात और रेहि क्रिया योग से अति शीघ्र कुंडलिनी जागरण करने की विधि बताती हूँ :-

प्रथम चरण या प्रारम्भिक प्रक्रिया यानि पार्टनर यानि साथी का चुनाव करें:-

इस रेहि योग में सबसे पहले आप यानि जो भी रेहि योग को प्रारम्भ करना चाहता है वो पहले अपना एक पार्टनर साथी चुने यानि कि- पति और पत्नी अथवा पिता और पुत्र अथवा माता और बेटी या भाई और बहिन या दो मित्र का एक जोड़ा बनाये और जिस दिन ये रेहि योग करें, उस दिन आप प्रातः शौच से निवर्त होकर एक दूसरे के सामने बैठ जाये और इस विधि में कोई एक गुरु बनेगा और कोई एक शिष्य बनेगा अर्थात जो गुरु बनेगा- वो अपने सामने बैठे व्यक्ति में अपनी शक्तिपात करेगा और सामने बेठा व्यक्ति केवल अपने में ही ध्यान करेगा।और बाद में यही दोनों पलट कर करेंगे।

द्धितीय चरण-अब इस रेहि योग को कैसे करेंगे ये जाने:-

अब ऊपर से नीचे की और ऊर्जा चक्र करने की विधि करें:-

अब जो कोई भी व्यक्ति पहले है,वह सब सामने वाले में इस प्रकार से करता हुआ अपनी ध्यान शक्ति से शक्तिपात करेगा- वो व्यक्ति अपनी आँखे बन्द करके अपने सामने बैठे व्यक्ति सहयोगी को अपनी मन की आँखों से देखे और अपनी मानसिक शक्ति को उसमे पहले देने के कारण उसके सिर को देखता हुआ ये मंत्र जपे-“सत्य ॐ सिद्धायै नमः” अब सामने वाले के चेहरे को मन की आँखों से देखते हुए,यदि स्पष्ट नहीं देख पा रहा है तो कोई बात नहीं केवल जो भी जैसा भी चेहरा दिख रहा है उसी का अनुमान लगाते हुए फिर से मंत्र बोलते हुए अपनी शक्ति उसमे प्रवाहित होने की कल्पना करे,जो अभी कम होगी, बाद में बढ़ती जायेगी, यो पहले केवल करता रहे,अब गला फिर छाती फिर पेट,फिर मूलाधार से लेकर सारे पेरो को और नीचे अंगूठों तक देखते हुए मंत्र बोले-सत्य ॐ सिद्धायै नमः।अब यही पेरो की देखता हुआ, कुछ समय टिके और लगभग 7 बार मंत्र बोले..

अब नीचे से ऊपर की और का ऊर्जा चक्र क्रम करने की विधि करें:-

अब फिर पैरों से उल्टा ऊपर को सामने वाले को देखता हुआ और मंत्र बोलता हुआ-पेट और छाती और गला और चेहरा और माथा और सिर के ऊपरी भाग तक पहुँच कर कुछ देर सिर को देखता हुआ,मंत्र जपे..
और कम से कम 7 बार तो जपे।

अब जब आप सामने वाले की सिर पर पहुँच कर मंत्र जप रहे हो,तब वहाँ से फिर से पहले जैसा ही क्रम करते हुए यानि ऊर्जा चक्र चलते हुए सामने वाले में-सिर से चेहरा-चहरे से गला-गले से छाती-छाती से पेट-पेट से सारे दोनों पैर के अंत तक नीचे तक आँखे बन्द और मन के द्धारा ध्यान से देखता हुआ मन्त्र जपे।
ऐसे ही कम से कम 51 या 108 उल्टा और सीधा रेहि के चक्र क्रम को करते हुए पूरा करें।

अब रेहि योग का दूसरे व्यक्ति द्धारा चक्र क्रम करना:-

अब सामने वाला दूसरा व्यक्ति ठीक पहले जैसा बताया रेहि ऊर्जा चक्र को,उसी क्रम से केवल अपने में, अपने सिर से प्रारम्भ करें,चूँकि उसे शक्ति लेनी है यो- वो उस शक्ति को अपने सिर से चहरे-फिर चेहरे से गले-फिर गले से छाती-फिर छाती से पेट-फिर पेट से लेकर यानि अपने मूलाधार से लेकर अपने दोनों पैरों के अंगूठो के अंत तक-गुरु मंत्र जपते हुए,उसे पहले व्यक्ति से दी जा रही ऊर्जा शक्ति को ग्रहण करता हुआ, अपनी आँखे बन्द करके आपना ही ध्यान करे और फिर से अपने में ही रेहि चक्र प्रारम्भ इस प्रकार से करें की अब- अपने पैरों से पेट तक-और पेट से छाती तक-फिर छाती से गले तक-फिर गले से चहरे तक-फिर चहरे से अपने माथे तक और फिर माथे से अपने सिर की चोटी तक-इस प्रकार नीचे से सिर तक-ऐसे ही 51 या 108 ध्यान जप क्रम को पूरा करें।

अब दूसरे व्यक्ति द्धारा पहले व्यक्ति जैसा ही रेहि चक्र का पहले व्यक्ति में शक्तिपात करते हुए 7 चक्रों का ध्यान करना:-

अब 9 दिनों बाद शक्ति देने वाला जिसे गुरु कहते है,वो केवल अपने में ध्यान करेगा और अब शक्ति लेने जिसे “शिष्य” कहते है वो शक्ति देने वाला बनकर पहले जैसा ही मन्त्र जपते हुए शक्तिपात योग करेगा।
तो आप दोनों अति शीघ्र ही इस प्रत्यक्ष शक्तिपात के निरन्तर अभ्यास से एक ज्योतिर्मय अलोक बिंदु देखेंगे और प्रकाश से भरते हुए अंत में कुण्डलिनी जागरण के सहज क्रम से गुजरते हुए आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त होंगे।
ये ही सच्चा सनातन योग का अति रहस्यमय और प्राचीन क्रिया योग विद्या रहस्य है।जो देखने में सहज है और विश्व का सर्वश्रेष्ठ क्रिया योग है।यही वर्तमान में सत्यास्मि धर्म ग्रन्थ में विस्तार से वर्णित है।जो स्वामी जी ने संसार के कल्याण को प्रकट किया है।

और इस रेहि क्रिया योग से कैसे प्रेमयोग कुण्डलिनी का जागरण 7 स्तरों पर होता है,ये बताती हूँ..

मन के 7 स्तर यानि कुंडलिनी जागरण के सत्य अर्थ:-
1-मूलाधार साधना:-
ये परस्पर प्रेम भोग से पृथ्वी तत्व से बने इस बाहरी शरीर के शुद्धिकरण की साधना और सिद्धि प्राप्ति है।
2-स्वाधिष्ठान साधना:-
ये तन से ऊपर उठकर आंतरिक प्राणों के रमण यानि प्राणों,जिसे सांसो के परस्पर प्रेम मिलन से स्त्री और पुरुष या पुरुष प्रकर्ति या प्रकर्ति पुरुष एक एक रूप मैं यानि स्वयं को पाने की साधना और सिद्धि प्राप्ति है।
3-मणिपुर साधना:-
ये तन और प्राणों से ऊपर यानि इनके पीछे जो है,वो है-स्वयं,उस स्वयं को दर्शाती सभी इच्छाओं के समूह यानि मन और उसकी शक्ति यानि माया,जिससे सब जीव जगत की सृष्टि हुयी है,उसके पीछे जो प्रेमा शक्ति का परस्पर सम्बन्ध है,उसे साधने की साधना और सिद्धि प्राप्ति है।
4-ह्रदय साधना:-
यहां स्त्री और पुरुष के तन-प्राण और मन और इसकी शक्ति माया, से जो भी भाव जगत का निर्माण होता है,यानि जहाँ से ये जड़ चैतन्य और इनका दो यानि स्त्री और पुरुष का भेद या इन दोनों के एक होने का पहला अभेद भाव का दर्शय बोध होता है,उसके मध्य जो प्रेम है,उसका जो आंतरिक शब्दावली का को एकीकरण है,क्योकि हर शब्द तीन तत्वों से बना है,स्त्री शब्द और पुरुष शब्द और बीज शब्द,यो इनका एक होने पर एक नाँद का उदय होता है,उस शब्दों के मूल से निकले शब्दों के एक होने के रमण से उत्पन्न प्रेम नाँद,जिसे अनहद नाँद कहते है। उसके भाव से महाभाव की शुद्धिकरण और सिद्धि होती है
5-कण्ठ साधना:-
यहां पहुँच कर साधक,इन पूर्व जो भी दो के बीच प्रेमा सम्बन्ध है,वे शुद्ध होने पर,उनके शब्दों में व्याख्यित करता गीत गाता गुनगुनाता है,जिसे बहिर प्रेम नाँद भी कहते है।
6-त्रिपुण्ड साधना:-
यहां सभी स्त्री पुरुष के तन-प्राण-बुद्धि-अहंकार-मन-चित्त का एक विवेक नामक प्रेमवस्था में लय होता है।यहाँ अभी विवेक रूपी प्रेम की स्थिति होती है,तब स्त्री और पुरुष और इनके बीच का लय यानि बीज अवस्था होनी और उससे पुनः दोनों की प्रेम के उपरांत उपस्थिति यानि चेतना होनी,चलती है।ये त्रिगुण या त्रिस्थिति-लय-प्रलय-सृष्टि होने के बार बार भाव की भी प्रेम शुद्धि और सिद्धि होती है।तब एक दूसरे के प्रति कोई आदेश,आज्ञा,अवज्ञा,प्रश्न,उत्तर का कोई भी द्धंद नहीं रह जाता है।यो इसे चक्र को प्रज्ञा चक्र कहते है।तीसरी आँख यानि जहाँ स्त्री और पुरुष के बीच के सभी दो होने के संसारिक भाव मिट जाते है।तब दोनों के पीछे जो है-विशुद्ध प्रेम और उसका प्रकाश और उसमें स्थिति ये तीन अवस्था, जिसे सावत्री-सविता-गायत्री भी कहते है,यानि इन की एक अवस्था,जिसे सूर्य कहते है,उस का मार्ग खुल जाता है।तभी अपार प्रेम के और उसके मूल प्रकाश के दर्शन होते है।यही त्रिनाड़ी गुहा सुषम्ना है।यहाँ से ही सहस्त्रार में प्रवेश होता है।
7-सहस्त्रार साधना:-
यहां दोनों और उनके मध्य का सम्बन्ध सेतु प्रेम ही शेष रहता है।यानि अनन्त रूपों में केवल प्रेम ही प्रकाशित होता है,जिसे निराकार यानि प्रकाश कहते है।और इसी प्रकाश के जन्मदाता दोनों के युगल और एकल अवस्था की प्राप्ति होती है।यहां युगल के दो दर्शन है-1-दोनों स्वतंत्र भी है-2-और दोनों अर्द्धनारीश्वर या अर्द्धनारेश्वर रूप के दर्शन होते है।और एकल अवस्था में अद्धैत अवस्था यानि बीज अवस्था,जिसे केवल प्रेम में लीन अवस्था कहते है,कि अब न स्त्री है न पुरुष है और न बीज है।केवल शेष है-महाप्रेम।और आगे इसी से पुनः चेतना होती है।जिसे वेद शून्य से पुनः सृष्टि और विस्तार होना कहते है।यही ज्ञान प्राप्ति आत्मसाक्षात्कार यानि अहम सत्यास्मि कहलाता है।

अब आगे प्रेम पूर्णिमां व्रत के करने से भक्तों में भक्ति संग शक्ति की सच्ची चमत्कार कथाएँ अगले भागों में एक एक करके दी जाएँगी…

“स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी”

जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः

Www.satyasmeemission. org

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