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अपने कभी भी प्रति वर्ष के 12 महीनों का अर्थ तो ज्योतिषीय गणित भाषा मे पढा होगा,पर ये बारह महीनो का कैसे ओर किस कारण से नाम पड़ा और इस नामकरण के पीछे की वो सत्यता क्या है,यो इन बारह महीनों को ईश्वर के दो रूप स्त्री और पुरुष के परस्पर प्रेमा भक्ति के बारह स्तरों को एक एक करके समझाते हुए,प्रेम के बारह माह के सच्चा अर्थ के साथ साथ ही दिव्य प्रेम की प्राप्ति कैसे करें,इसके सूत्रों को भी अर्थ सहित अपनी सत्संग ग्रँथ में बता रहें हैं,स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…

अपने कभी भी प्रति वर्ष के 12 महीनों का अर्थ तो ज्योतिषीय गणित भाषा मे पढा होगा,पर ये बारह महीनो का कैसे ओर किस कारण से नाम पड़ा और इस नामकरण के पीछे की वो सत्यता क्या है,यो इन बारह महीनों को ईश्वर के दो रूप स्त्री और पुरुष के परस्पर प्रेमा भक्ति के बारह स्तरों को एक एक करके समझाते हुए,प्रेम के बारह माह के सच्चा अर्थ के साथ साथ ही दिव्य प्रेम की प्राप्ति कैसे करें,इसके सूत्रों को भी अर्थ सहित अपनी सत्संग ग्रँथ में बता रहें हैं,स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…

चैत्र का प्रेमार्थ:-

प्रेम प्रारम्भ”चैत्र”से
जीव चैतन्य नवरात्र।
हुआ जीव में जागरण
दिव्य प्रेम दिवस प्रभात।।

बैशाख का प्रेमार्थ:-

बाल्य सृष्टि जीव की
ज्यो अंकुरित बीज से शाख।
एक एक कला यौवन बने
नर नार प्रेम”बैशाख”।।

ज्येष्ठ का प्रेमार्थ:-

जीव निरन्तर उर्ध्व हो
बढ़े फलित की और।
जीव”ज्येष्ठ”है ज्ञानमय
तप कर प्रेम बढ़े घनघोर।।

आषाढ़ का प्रेमार्थ:-

सौलह कला से पूर्ण जीव
है नित आशामय बाढ़।
प्रेम ‘कलेवर’त्याग कर
बन फ़ूट रहा”आषाढ़”।।

श्रावण का प्रेमार्थ:-

प्रेम पीह पीह की,
“श्रावण”ह्रदय करता।
प्रत्युतर बरसे प्रेम
प्रेम आलिग्न भरता।।

भाद्रपद का प्रेमार्थ:-

प्रेम सखा प्रेम अभेद
प्रेम आत्मवत् पद।
प्रेम पूरक स्वयं में
प्रेम प्रेम नाम “भाद्रपद”।।

आश्वनी का प्रेमार्थ:-

प्रेम आशविद्”आश्वनि”
नित आशा नवरात्र।
प्रेम ही दाता पितृ बन
प्रेम ग्राही स्व मातृ।।

कार्तिक का प्रेमार्थ:-

स्वयं प्रेम कीर्ति कर्म
स्वयं प्रेम निष्काम।
प्रेम”कार्तिक”प्रेममय
प्रेम स्वयं निज धाम।।

मार्गशीष का प्रेमार्थ:-

प्रेम कोहम प्रेम सोहम
प्रेम अटलमय शीर्ष।
प्रेम आदि प्रेम अनादि
प्रेम स्वयं “मार्गशीर्ष”।।

पौष का प्रेमार्थ:-

नवधा भक्ति पोषित करे
प्रेम फले नवरूप।
नव क्रम”पौष”प्रेम का
प्रेम नर नारि स्वरूप।।

माघ का प्रेमार्थ:-

प्रेम प्रेम से प्रेम पूर्ण
पूर्णत्व प्रेम ही “माघ”।
प्रेम स्वयं से प्रेम कर
गाता अभिसारी राग।।

फाल्गुन का प्रेमार्थ:-

प्रेम सगुण परमात्मा
प्रेम जीव-जगत आधार।
नव रंग प्रेम से प्रस्फुटित हो,
बन”फाल्गुन”करे आभार।।

दिव्य प्रेम प्राप्ति के सूत्र को भी बता रहे हैं स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी…

तीन पक्ष में जीव बंटा
ईश्वर,वाम और आप?
कोई एक ध्यान विषय नहीं
तब प्रेम मिले या ताप??
काम तृप्ति वाम संग
और एश्वर्य तृप्ति ईश?
कभी यहाँ कभी वहाँ बंटे
मन पाये कहाँ प्रेमधीश??
जब इश ही दाता सर्व कर्म फल
तब वही वाम दे काम।
वही तुम संग मिल एक बने
तब तुम ईश मिलों प्रेमधाम।।
कोई एक ज्ञान को पकड़ चलो
ईश बंटा है तुम और वाम।
यो ईश तुम हो वाम संग
यो एक दूजे रमित हो काम।
तब इस मंथन निकले चौदह रत्न
और सर्व पाओगे सुख।
एक दूजे मिल पूर्ण हो
तब मिले प्रेम मिट दुःख।।
कोई एक ही पकड़ चलो
वो सूत्र है निज प्रेम।
दाता बनो लेता नहीं
यो मिले दिव्यता प्रेम।।

भावार्थ:-

हे शिष्य तुम्हें प्रेम यो नहीं मिलता है।क्योकि तुम तीन
भाग में बंटे हुए हो।अपनी काम
और सृष्टि की उत्पत्ति को तो तुमने अपने से विपरीत स्त्री या पुरुष को काम का विषय बनाया हुआ है।
और इन सबको जो एश्वर्य चाहिए,उसके लिए तुमने ईश्वर को पकड़ रखा है।उससे प्रेम का नाटक करते हो।
और अपने आप केवल प्रेम के माँगता मात्र हो,कोई आये वो तुम्हें पूर्ण करेगा।जब यही सब रहेगा तब तुम्हारा मन एकाग्र कैसे होगा?
यो इन दोनों में से किसी एक सूत्र को पकड़ो,या तो जब सब ईश्वर ही दाता है,तब तुम्हारे काम की भी वही तृप्ति कर देगा।
या ये मानो की तुम और तुम्हारा वाम भाग भी ईश्वर का ही दो अंश है।
तब तुम ही ईश्वर हो,यो अब परस्पर ही प्रेम करो,तब अवश्य तुम्हें प्रेम मिलेगा।
और साथ ही ये जानो की-तुममें और ईश्वर में किस प्रकार से मित्रता या प्रेम हो सकता है
क्योकि तुम रंक हो और ईश्वर राजा है यो ईश्वर ने प्रेम के नाम पर तुम्हे कुछ दान दे भी दिया तो
वो प्रेम नहीं एक उपकार मात्र है।
यो स्वयं में ईश्वर भाव लाकर दाता बनोगे तब तुम अपने वाम से प्रेम करोगे।ऐसे ही वाम तुमसे दाता भाव रख प्रेम करेगा।
यहाँ दोनों देने के भाव को देने से उसका प्रतिफल यानि प्रेम स्वयं ग्रहण करेंगे।

स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः
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