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शुभ सत्यास्मि ज्ञान प्रातः


ये जीव जगत बना विधि से
शब्द रुप रस गंध स्पर्श।
प्रेम प्राप्त हो विधि से
मिटा अहं विधि संघर्ष।।
शरीर बना पँच तत्व से
त्रिगुण विधि लय विलय।
मंथन ही विधि सब
आत्म प्रभात खिलय।।
भावार्थ:-हे-शिष्य तुम्हारा प्रश्न है की क्या आत्मसाक्षात्कार को किसी विधि की आवश्यकता है? तो जानो की ये जीव और जगत और इसका नियन्ता अर्थात जो भी इसको जानना चाहता है वही कोहम है जो इसको जानता है वही सोहम है और जो इसको जान कर शेष होता है वही सत्य है तो ये जानना कैसे होता है यही सब विधि है ये शरीर पंचतत्वों से बना है इसमें एक क्रम है शब्द,रूप,रस,गन्ध,स्पर्श जिनसे इस शरीर और इसको जानने वाला कौन है ज्ञात होता है यो यही पँच तत्व के पीछे त्रिगुण है जो स्त्री और पुरुष और इन दोनों की संयुक्त प्रेम अवस्था बीज है और इन सबका एक दूसरे में लय और विलय और पुनः सृष्टि होना अथवा अखण्ड से खण्ड होना आदि ही एक विधि के अंतर्गत है यो विधि कोई भिन्न नही है ये पुष्प की गन्ध और आत्मा का वस्त्र शरीर हैं यो यही स्वभाव है जो अपने स्वभाव को अपने से भिन्न मानते है वे विधि और विधाता कहते है और जो इसे अपना स्वभाव मानते और जानते है वो मुक्त पुरुष स्त्री है यही मोक्ष रूपी आत्म प्रभात जीवन में खिलता है यो विधि को स्वयं का बन्धन नहीं बल्कि स्वभाव मानो तभी विधि को आत्मसात कर स्वयं को प्राप्त करोगे।
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