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अहम् सत्यास्मि गुरु पूर्णिमाँ उद्धघोष


ओ उठो जागो सिंहो
सनातन धर्म वीर।
तुम ईश संतति
त्याग बंधन की पीर।।
तोड़ निंद्रा अज्ञान
चलो आत्म के पथ।
मैं हूँ कौन खोजते
अंवेषणा के गत।।
जब तक मिले न लक्ष्य
खेल प्राणों की बाजी।
सिंचित कर कर्म नीर
खिला आत्म पुष्प अविभाजी।।
मिटा भय अंध मेघ
निज आत्म ज्ञान अर्जन।
मैं हूँ अनादि सत्य
घोर कोंध कर गर्जन।
ले दीर्घ स्वास् प्रस्वास्
चला संघर्ष भस्त्रा।
मिट जाये आलस्य
तड़ित तरंगित प्राण अस्त्रा।।
किससे भय कौन है
जो दे मृत्यु मुझको।
मैं हूँ अग्नि स्फुर्लिंग
अमर प्रज्वलित स्व हम को।।
भरे ये साहस
नही कोई तुझ सा इस जग।
उठे अंतर नाँद अपार
अद्भ्य कुंडलिनी शून्य त्यग।।
भर जाये शक्ति भक्ति
स्वंय की अलौकिक मूरत।
प्रफुटित हो वेद घोष
अहम् सत्यास्मि पूरत।।
त्रि गुण हूँ मैं ही अनादि
दूषित विचार सार है व्याधि।
स्वेच्छित ओढ़ पँचतत्वी तन
मन माया मैं ही हूँ समाधि।
पुरुष रूप सत्य हूँ मैं ही
साकार ॐ हूँ शाश्वत नारी।
मैं ही मिल मैं में हो पूरण
सिद्धायै हूँ सर्व जीव सृष्टि सारी।।
स्व प्रेम से प्रकट मैं साकार
रह अशेष में शेष प्रेम मैं निराकार।
यो प्रेमवत भेष नमः हूँ बीज
मिट अमिट हो अहं हीन एकाकार।।
पुनः स्वेच्छित हो मैं जाग्रत
मैं से मैं भिन्न हो प्रेम व्याग्रत।
एकोहम् बहुश्याम कर द्धैत घोष
ईं इच्छा क्रिया ज्ञान स्व मैं रत।।
फट् प्रकट चतुर्थ वेद ब्रह्म स्व बन
अर्थ धर्म काम मोक्ष स्व जन।
हो परिपूर्ण सर्व कह स्व स्वाहा
अनंत अकाल मैं पुनःजीऊ दिव्य प्रेमतन।।
जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः ईं फट स्वाहा

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