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स्त्री का आज्ञा चक्र(तीसरा नेत्र)

स्त्री का आज्ञा चक्र(तीसरा नेत्र)-स्त्री की कुंडलिनी और चक्र तथा उनके बीजमंत्र पुरुष की कुंडलिनी और चक्रों व् उनके बीजमंत्रों से बिलकुल भिन्न है-विश्व धर्म इतिहास में पहली बार सत्यास्मि मिशन की इस अद्धभुत योगानुसंधान के विषय में पहले प्रचलित वाममार्गी योग के एक एक क्रम से बता रहें हैं,फिर नीचे इसका उत्तरमार्गी योग क्रम बता रहें है-स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी… [भाग-13] आज्ञा चक्र नीचे के योग क्रम से छठा चक्र है। आज्ञा चक्र का अर्थ,रंग-आक्रति-गुण धर्म आदि:- आज्ञा=जितने भी प्रकार की आत्मा की मनोइच्छाएं है,वे सब यहाँ इच्छा करते ही तत्काल पूर्ण होती है,क्योकि ये स्थान केवल शक्ति की प्रधानता का चक्र है,यहाँ किन्तु परन्तु या संशय नही रहता है,केवल आदेश और उसका पालन होता है,यो इसे आज्ञाचक्र कहा गया है।यहाँ मन की दो धाराएं यानि इच्छा और क्रिया एक हो जाती है,यो इसे विलपावर चक्र भी कहते है।ये मस्तक के सामने के बीच के भाग और दोनों भोहों के कुछ ऊपर स्थित होता है।(वैसे ये सूक्ष्म शरीर में होता है)यो इसे एक मन की एक आँख यानि तीसरी आँख भी कहते है।यहां मनुष्य की त्रिनाडियों यानि इंगला(चंद्र नाड़ी) पिंगला(सूर्य नाड़ी) और इन दोनों का क्रिया स्थान सुषम्ना(मन का मूल प्रवेश द्धार) बनकर एक हो जाती है।यो उनका संगम स्थान होता है।इसे ही सच्ची त्रिवेणी तीर्थ यानि संगम भी कहते है।यही सारी चेतना शक्ति का विकास होता है।यहां से ही सहस्त्रार चक्र का मार्ग प्रारम्भ होता है।यहाँ सभी मंत्र यानि मन+त्र- मन की तीन अवस्थाओं का एक होना ही मन का त्राण अर्थ है।यो यहाँ सभी मंत्र केवल नाँद रूप में बदल कर अपनी चेतना शक्ति के रूप में कार्य करते है और वे यहां पहले केवल शुद्ध प्रकाश और उसमे हो रहे आकर्षण विकर्षण के हो जाने पर उनसे निर्मित उर्ध्वगामी शक्ति धारा से उत्पन्न एक उर्ध्वगामी ध्वनि जिसे ॐ कहते है,उसमें परिवर्तित हो जाते है।ये प्रकाश अनन्त स्वरूप में श्वेत व् शीतल अरंग होता है।इसे ही अनगिनत साधक निराकार ईश्वर के प्रकाश रूप में दर्शन पाते है और उसमें ठहर जाते है।इसे ही आदि-मध्य-अंत मान सम्पूर्ण समझते है।जबकि यहां तो मनुष्य की सभी शब्द रूपी अनंत इच्छाएं जिन्हें मंत्र भी कहते है,वे शक्ति में रूपांतरित होना भर की अवस्था का शक्ति रूप दर्शन मात्र है।इससे आगे तो आत्मदर्शन की श्रंखला शेष होती है।यहां साधक के त्रिगुण-तम्-रज-सत् मिलकर एक गुण यानि निर्गुण बन जाते है।पर यहाँ निर्गुण का अर्थ निष्क्रिय और शक्तिहीन नहीं है।बल्कि शक्ति सहित सगुण है। तभी तो आज्ञा और उसका पालन होता है और साथ ही इस चक्र से आकाशवाणी भी होती है,जो भी प्रश्न होता है,उसका उत्तर भी मिलता है,ये वरदान स्थान भी है।इस चक्र में प्रवेश होते ही साधक को चारों और यानि दसो दिशाओ में एक साथ एक समान निर्विघ्न रूप में सर्वत्र सब कुछ तीनों कालों के अंतर्गत जो भी है,वो सब ऐसे दीखता है,जैसे सब उसके बिलकुल सामने ही हो रहा हो।यहाँ शुक्र के तारे की तरहां आसमानी चमक वाला प्रकाशित बिंदु सदूर आकाश में दिखता है।इस आकाश को चिद्धि आकाश भी कहते है। और जब साधक की जो भी अच्छी या बुरी इच्छा होती है,वो इस शुक्र की तरहां चमकते तारे से शक्ति निकलती हुयी इस भौतिक या आध्यात्मिक जगत में पूरी होती दिखती है।बल्कि ऐसा प्रत्यक्ष लगता है की-जैसे- इस तारे के ठीक पीछे से शक्ति अपने अच्छे रंग यानि श्वेत शक्ति बादल से या बुरी शक्ति काले बादल और बिजली कड़कती के रूप में फैलती चली जाती है,और आदेश अनुसार कार्य करती है। और यदि साधक को इसी बीच में अपना आदेश बदलना होता है या उस सम्बंधित उत्तर चाहिए होता है,तो वो उत्तर प्राप्ति सहित ठीक वेसा ही आदेश अनुसार होने लगता है। स्त्री आज्ञा का मूल केंद्र में रंग पीली कणिकाओं वाला यानि रजोगुणी रश्मियों वाला श्वेत पुष्प है,जिसके केंद्र में ओंकार ध्वनि सहित प्रस्फुटित और विस्तारित है,फिर उसके बाहर की और दो लाल और नीलवर्णीय नेत्रों जैसे पटल है,इन्हें ही योनि पटल या योनि चक्र भी कहते है, और उन पटलो के दोनों और के केंद्रों की और दो दलीय पद्म है,और उन पर सं और हं बीजमंत्र प्रतिष्ठित है,वेसे यहाँ कोई बीजमंत्र नहीं रहते है,ये दोनों चेतना शक्ति की धारा के दो छोर बीजमंत्र नाम है,यानि आती चेतना का स्वर स है और जाती चेतना का स्वर ह है।ये ही योनि पीठ भी कहलाता है। और इन सबके पीछे पँच तत्वों और उनकी पँच प्राण शक्तियों के समिश्रण या एकत्रीकरण से एक पँच कोणीय सितारा है,जो शुक्र के तारे जैसा श्वेत और नीलवर्णीय मिश्रित रंग से अनन्त तक प्रकाशित है,जिसकी चमक श्वेत दूध जैसी निर्मल और शांत अनंत रश्मियों से निर्मित है,ये चारों और ऐसे फेल रहा है,जैसे किसी प्रकाश को छलनी के अवरोध से रोका जाये और वो उस छलनी के अनंत छिद्रों से प्रस्फुटित होता रहें।फिर ये सब के पीछे नीलवर्णीय आकाशीय बादल है,जो फिरोजी रंग के आकाश के केंद्र में इन सबके साथ विस्तारित हो रहे हो।स्त्री शक्ति का ये आज्ञाचक्र अद्धभुत है। आज्ञा चक्र जागर्ति की साधना का सत्य अर्थ:- सच्च में तो आज्ञा चक्र की वेसे तो कोई स्वतंत्र साधना नहीं है,ये साधना का सहस्त्रार की और से दूसरा चक्र है,और नीचे से छठा चक्र है।वेसे ये यथार्थ योग में ऊपर से ही दूसरा चक्र ही है,कैसे आओ जाने जो अपने आज तक नहीं जाना होगा। पहला चक्र है-सहस्त्रार चक्र-जो आत्मा या मूल चेतना का मूल केंद्र है।यहाँ से आत्मा जिसके आंतरिक रूप में तीन भाग है-ऋण और धन तथा बीज।और इस आत्मा की इच्छा और क्रिया का दुसरा चक्र है-आज्ञा चक्र।यानि आत्मा की भौतिक व् आध्यात्मिक या स्थूल और सूक्ष्म या भोग और योग की संयुक्त इच्छा या आज्ञा या आदेश होना।फिर यहां से तीसरा है-आत्मा की ये इच्छा का वाणी रूप में यानि शब्द भाषा रूप में प्रकट होना,जो कंठ चक्र है।फिर चौथा चक्र या अवस्था है-ह्रदय चक्र यानि आत्मा की इच्छा,जो शब्द से भाव रूप में सूक्ष्म स्तर मन के रूप स्तर पर प्रकट हुयी।जैसे-कोई योजना को कार्य में बदलने से पहले उसकी लेखन या चिंतनीय रूपरेखा बनानी।फिर ये सब इच्छा आदि नाभि चक्र में जाकर अपनी क्रिया से सृष्टि करना प्रारम्भ करते है।और फिर स्वाधिष्ठान चक्र में ये आत्मा इच्छा और शक्ति से अपनी स्वयं की सभी पहचानों को जगत में अधिष्ठित यानि स्थापना करती है।और फिर ये सब भौतिक बीज का स्खलन होकर आत्मा का भौतिक शरीर रूप लेकर मूलाधार चक्र से जगत में प्रकट होता है।ये है-उत्तरमार्गी योग और जब ये आत्मा अपने मूल स्थान की और सिमटती है-तब उसे ही वाममार्ग योग कहते है।ये ही सब ऊपर से नीचे और पुनः नीचे से ऊपर की और एक लम्बवत वृत के रूप में कुंडलाकार होने से कुण्डलिनी अर्थ कहलाती है।और जो इसकी इस आरोह और अवरोह क्रम से साधना करते है,जिसका सत्यास्मि मिशन की खोज रेहि क्रिया योग विधि से अति शीघ्र जागरण होता है।वे कुण्डलिनी जागरण की साधना व् साधक कहलाते है।यानि इस कुंडलाकार वृतावस्था को तोडना ही कुण्डलिनी जागरण साधना कहते है। तभी योग शास्त्रों में कहा गया है की-मैंने पहले सूर्य को ज्ञान दिया और फिर सूर्य ने उसे इक्ष्वाकु यानि इच्छा को यानि अपनी सप्त ज्ञान रश्मियों रूपी इच्छा को दिया,फिर इक्ष्वाकु के इस इच्छा रूपी वंश से ये पंच देवों यानि पंचइंद्रियों को पांच प्राणों के रूप में ज्ञान प्रदान हुआ और तब ये पंचदेवों से सम्पूर्ण संसार में प्रचारित हुआ है और ठीक इसी प्रकार से ये वापस मुझमें विलीन हो जाता है यहीं कुंडलाकार स्थिति जो जो जान कर उसे तोड़ देता है।वही मुक्त होकर योगी कहलाता है।यही सनातन योग है।यो ये “मैं” ही शाश्वत सनातन अपरिवर्तनशील स्थिर आत्मा है।इस मैं के तीन भाग है-1-म यानि स्वयं-2-ऐ यानि-इच्छा व् इंद्रिय-3-अंग यानि शरीर रूपी विस्तार।यो ये मैं ही सर्वत्र और नाम यानि साकार है और अनाम यानि निराकार भी है।यही मैं की प्राप्ति ही योग है। जब साधक अपने को ध्यान में बैठकर एकाग्र करता हुआ यानि आत्मचिंतन करना प्रारम्भ करता है,तब उसकी ये आत्मचिंतन यानि इच्छा और उसे प्राप्ति की शक्ति यानि विलपावर की जागर्ति होती है,तब ठीक इसी इच्छा जागर्ति चक्र यानि आज्ञाचक्र पर इस चिंतन ध्यान से स्फुरण और स्पर्श का अहसास होता है,इस चक्र पर जोर पड़ता है और यहाँ कुछ घूमता या चींटियों के घूमकर चलने या सिर की और जाने का आंतरिक अनुभव होता है।तब कुछ लोग सोचते है की-ये चक्र जाग्रत हो रहा है।पर ये असल होते हुए भी इस चक्र की जागर्ति नहीं है।इस चक्र की जागर्ति केवल केवल कुम्भक यानि देहभान होने और प्राणों के स्तब्ध होने के उपरांत त्रिबंधों के लगने आदि की विशिष्ठ साधना के वर्षों के उपरांत दुरूह स्थिति में होती है।अर्थात ये इतना आसान नहीं है।जितना चारों और अनेक कथित योगी नाम धारी कहते फिरते है।यो इस लेख को गम्भीरता से पढ़ो और समझो।और साधना करो।क्योकि आप ही तो इस सबके पीछे और आगे हो,यो अवश्य ही अपने आपे को प्राप्त करने में क्या कठनाई।कुछ भी नहीं।यो बस समझ से ध्यान करो। यो जो गुरु प्रदत्त रेहि क्रिया योग को विधिवत व् नियमित करता है।वह इस योग को प्राप्त होकर जीवंत मुक्त है। यो इससे आगे स्त्री के सहस्त्रार चक्र के विषय में अगले लेख में बताऊंगा। इसके गम्भीर रहस्यों को गुरु सानिध्य और उनकी कृपा से ही ग्रहण किया जाता और जाना चाहिए। स्वामी सत्येंद्र सत्यसाहिब जी जय सत्य ॐ सिद्धायै नमः Www.satyasmeemission. org

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